तुम्हारे लिए
ये पंक्तियाँ सुमित्रा नंदन पन्त जी की कविता अनुभूति से हैं। पन्त जी छायावाद के स्तम्भ माने जाते हैं। मेरे बचपन और छात्र जीवन में पन्त जी की कविताएँ मेरे ह्रदय के समीप थे। समय के साथ मेरा रुझान अंग्रेजी की तरफ बढ़ता गया और पन्त जी अंतर्मन के किसी कोने में खो गए। आज बहुत दिनों बाद मुझे उनकी इस कविता की याद आ गयी । मैं इन पंक्तियों के लिए बहुत कुछ लिखने का प्रयास कर सकता हूँ किन्तु वो अपर्याप्त रहेगा मेरी भावनाओं को व्यक्त करने में ।
ये पंक्तियाँ तुम्हारे लिए हैं...
अनुभूति
---------
तुम आती हो,
नव अंगों का
शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।
बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,
सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,
तुम आती हो,
अंतस्थल में
शोभा ज्वाला लिपटाती हो।
अपलक रह जाते मनोनयन
कह पाते मर्म-कथा न वचन,
तुम आती हो,
तंद्रिल मन में
स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।
अभिमान अश्रु बनता झर-झर,
अवसाद मुखर रस का निर्झर,
तुम आती हो,
आनंद-शिखर
प्राणों में ज्वार उठाती हो।
स्वर्णिम प्रकाश में गलता तम,
स्वर्गिक प्रतीति में ढलता श्रम
तुम आती हो,
जीवन-पथ पर
सौंदर्य-रहस बरसाती हो।
जगता छाया-वन में मर्मर,
कंप उठती रुध्द स्पृहा थर-थर,
तुम आती हो,
उर तंत्री में
स्वर मधुर व्यथा भर जाती हो।
ये पंक्तियाँ तुम्हारे लिए हैं...
अनुभूति
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तुम आती हो,
नव अंगों का
शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।
बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,
सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,
तुम आती हो,
अंतस्थल में
शोभा ज्वाला लिपटाती हो।
अपलक रह जाते मनोनयन
कह पाते मर्म-कथा न वचन,
तुम आती हो,
तंद्रिल मन में
स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।
अभिमान अश्रु बनता झर-झर,
अवसाद मुखर रस का निर्झर,
तुम आती हो,
आनंद-शिखर
प्राणों में ज्वार उठाती हो।
स्वर्णिम प्रकाश में गलता तम,
स्वर्गिक प्रतीति में ढलता श्रम
तुम आती हो,
जीवन-पथ पर
सौंदर्य-रहस बरसाती हो।
जगता छाया-वन में मर्मर,
कंप उठती रुध्द स्पृहा थर-थर,
तुम आती हो,
उर तंत्री में
स्वर मधुर व्यथा भर जाती हो।
1 Comments:
For You....
"Why do I love You,Sir?
Because—
The Wind does not require the Grass
To answer—Wherefore when He pass
She cannot keep Her place.
Because He knows—and
Do not You—
And We know not—
Enough for Us
The Wisdom it be so—
The Lightning—never asked an Eye
Wherefore it shut—when He was by—
Because He knows it cannot speak—
And reasons not contained—
—Of Talk—
There be—preferred by Daintier Folk—
The Sunrise—Sire—compelleth Me—
Because He's Sunrise—and I see—
Therefore—Then—
I love Thee— "
Am not even trying to thank you for the generous comparisons that u've drawn bcoz i dont think i can thank you enough for all that you have done and continue to do for me.....
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