Friday, March 19, 2010

आभाव से समझौता

मेरे मन की कुछ दराजे खली राखी थी। उन अनुभूतियों के लिए जो अन्चाखे थे। जिनसे मेरा परिचय किताबों में हुआ था। सोच कर की पढ़ी हुई ये अनुभूतियाँ कभी महसूस भी होंगी। हर दराज को प्यार से लेबुल किया था - एक नाम हर उस अनुभूति के लिए जिसका आभाव था।

ये सब बहुत पहले किया था। काफी दिनों से तो कुछ याद भी नहीं था। मैं तो मन के अन्दर झांकता ही नहीं था। इसलिए इन दराजों को बचपन के स्क्रैपबुक की तरह भूल गया था। कुछ दिन पहले मन में झाँका तो इन दराजों के देखा। लगा, चलो इनको भरने की कोशिश करे। कुछ दिनों तक अनुभूतियाँ बटोरता रहा।

कल एक तूफ़ान आया। आज सुबह देखा तो दराजों में धुल और पत्थर भरा हुआ हुआ है। भरे हुए दराज से मन भारी है। लेकिन अब इनको साफ़ करके फी संजोने की हिम्मत नहीं है ।

सोचता हूँ की झूठी आशा के हल्केपन से वास्तविकता का भारीपन अच्छा है । मन ऊंचा नहीं उड़ेगा लेकिन गिरने से ज्यादा चोट भी नहीं आएगी । और दूर तक तो जायेगा - भले ज़मीन से चिपक कर ही सही!

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