इश्क
(मेरी पहली उर्दू शौकिया नज़्म...दरियादिली से गौर फरमाइयेगा)
रात रेत आहिस्ता आहिस्ता
उँगलियों के बीच से
फिसल फिसल कर तेरे
टांगों पे जा टिकती थी
चाँद काहिल, कुछ देर से
जो बादलों को ओढे था
झांक के बाहर चेहरा
तुम्हारा तकता था
आवारा हवा बार बार
समंदर से पा बढावा
जुल्फों को उलझा कर
चेहरे पे खींच लाती थी
तुम खीज कर अलक
पेशानी से पीछे धकेलती थी
और माथे पे तुम्हारे शिकन
खिलखिला निकल आती थी
तलावत से तेरी मैं ही नही
कुदरत भी होश खो बैठी थी
कल रात फितरत खुदा की भी
तेरे हुस्न से मचल गई थी
रात रेत आहिस्ता आहिस्ता
उँगलियों के बीच से
फिसल फिसल कर तेरे
टांगों पे जा टिकती थी
चाँद काहिल, कुछ देर से
जो बादलों को ओढे था
झांक के बाहर चेहरा
तुम्हारा तकता था
आवारा हवा बार बार
समंदर से पा बढावा
जुल्फों को उलझा कर
चेहरे पे खींच लाती थी
तुम खीज कर अलक
पेशानी से पीछे धकेलती थी
और माथे पे तुम्हारे शिकन
खिलखिला निकल आती थी
तलावत से तेरी मैं ही नही
कुदरत भी होश खो बैठी थी
कल रात फितरत खुदा की भी
तेरे हुस्न से मचल गई थी
2 Comments:
in keeping with the spirit of the times, for a change.
the urdu seems a bit forced though (as it is, i suppose) but overall quite nice
Romantic hai be....mast hai ....
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